उस दिन वहाँ से गुज़रते हुए,
एक चौराहे पर लोगों की भीड़ देखी
वहाँ काफ़ी शोरगुल था
पर लोग ‘शांत’ खड़े थे
उत्सुकतावश वहाँ पहुँचा, तो देखा –
एक ‘नुक्क्ड़-नाटक’ चल रहा था
डफ़ली की ताल पे तेज़ गायन हो रहा था
काले कपड़े पहने कई सारे युवा
बड़े उत्साह से,
बड़े प्रभावी ढंग से अपनी प्रस्तुति दी रहे थे
उनके शब्द सच्चे थे –
उनके तंज बड़े कसे हुए थे –
जो सभी लोगों के दिलों में बस रहे थे
‘सामाजिक चेतना’ को प्रोत्साहित करती
उनकी अभिव्यक्ति वाक़ई अर्थपूर्ण थी
जो सभी को कुछ सोचने पे मजबूर कर रही थी।
— विक्रम सहगल
Bohot Khoob 🙂
धन्यवाद!